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आये थे हरिभजन कों, औटन लगे कपास

कबीर युवावस्वथा में ही ईश्वर की ओर झुक गए थे। न चाहते हुए भी कबीर को पारिवारिक बंधन में बंधना पड़ा था । जब पारिवारिक बंधन में बंध ही गए तो दुनिया से विमुख कैसे होते । अतः वे अपनी गृहस्थी चलाने के लिये काम करने लगे थे । प्रातःकाल स्नान-ध्यान करके वे अपने काम में लग जाते थे । मजदूर की तरह सुबह से शाम तक लगे रहते ।

कुछ दिन बाद वे पक्के जुलाहे बन गए थे । कुछ दिन बाद उन्होंने अपने ही कपडे बुनने की खड्डी लगा ली थी । दिन भर ताने बाने चलाते रहते और कपडा तैयार होता रहता | कपडा बुनने के साथ ही साथ प्रभु धुन में लगे रहते | खड्डी का पैना तानों-बानों में इधर उधर दौड़ता रहता | और मन ईश्वर और माया की उधेड़बुन में | जब मन होता तो ईश्वर के भक्त-संतो के साथ सत्संग करने लगते | जब उन्हें गृहस्थी की याद आती तो घर आ जाते और अपने काम में लग जाते |

कबीर गृहस्थ होते हुए संत और संत होते हुए गृहस्थ थे | वे कहते थे की काम करना भी एक तरह का प्रभु की आराधना है | प्रभु की उपासना है | रोजी रोटी कमाने को सामाजिक धर्म और भक्ति आराधना को वे ईश्वर प्राप्ति का साधन मानते थे |

जब उनके यहाँ कमाल और कमाली का जन्म हुआ, तो वे जरूरतों के मुताबिक काम में और अधिक समय देने लगे | अब कबीर स्नान-ध्यान करके जल्दी ही कपास से सूत, सूत से धागा, से पूनी आदि बनाने लगे और शाम तक लगे रहते | अब कबीर काम करते करते ईश्वर में ध्यान लगाते | इसी कारण कबीर संतो में मिल नहीं पाते थे | अब संत आदि स्वयं ही चलकर कबीर से मिलने आने लगे थे | अधिकतर साथी संत उनकी साधना और और उनके गृहस्थ जीवन को भली भांति जानते थे |

एक बार उनके प्रिया साथी संत उनसे मिलने के लिए घर आये | जब वे कबीर की कुटिआ के पास पहुंचे, तो उन्होंने देखा की कबीर अपने काम में लगे हुए हैं | कबीर अपने काम करने में तल्लीन थे और कुछ धीमे धीमे गुनगुनाते जा रहे थे | वे खड़े खड़े कबीर को काम करते देखते रहे |

जा कबीर की नजर उन पर पड़ी तो वे कह उठे, "आओ संतगण| बैठो | " कबीर के साथी फिर भी कबीर को एकटक देखते रहे | कबीर ने कहा, " क्या सोच रहे हो? " 

उनमे से एक संत ने कबीर की ओर देखते हुए कहा - 'आये थे हरिभजन कों, औटन लगे कपास' | कबीर थोड़े मुश्करा भर दिए |

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